ईरान ने कब और कैसे अमेरिका को बना लिया अपना तगड़ा दुश्मन, पढ़ें पूरी कहानी.

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ईरान ने कब और कैसे अमेरिका को बना लिया अपना तगड़ा दुश्मन, पढ़ें पूरी कहानी.
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ईरान के शाह पहलवी को अमेरिका का खास आदमी माना जाता थाइस्लामी क्रांति के बाद भी अमेरिका ने ईरान को लुभाने की कोशिश की ईरान के कदमों से अमेरिका हमेशा सशंकित रहता आया है.ये अक्टूबर 1979 की बात है, शाह मोहम्मद रजा पहलवी के ईरानी क्रांति से भाग जाने के पूरे 8 महीने बाद अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी को फ्रांस से वापस आकर उन्हें ईरान के सर्वोच्च नेता के रूप में सत्ता सौंप दी गई. देश को 1 अप्रैल को इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया. अमेरिकी दूतावास के लोगों को लंबे समय से बंधक बनाए जाने के बाद अमेरिका को तगड़ी चोट लगी थी. वह इससे बिलबिलाया हुआ था लेकिन ईरान की स्थिति ऐसी थी कि वो इसके बाद भी ईरान के साथ संबंध सुधारने की कोशिश में था.

सीआईए के एक वरिष्ठ अधिकारी जॉर्ज केव तेहरान गए. अंतरिम उप-प्रधानमंत्री अब्बास अमीर एन्तेज़ाम तथा विदेश मंत्री इब्राहिम याज़दी के साथ दो बैठकें कीं. उन्होंने उन्हें शीर्ष-गोपनीय खुफिया जानकारी के आधार पर चेतावनी दी कि पड़ोसी देश इराक सद्दाम हुसैन के राज में चुपचाप और व्यवस्थित तरीके से ईरान पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है. तब तक अमेरिकियों ने क्रांति को उलटने और शाह पहलवी को फिर सत्ता में लाने की कोई भी उम्मीद छोड़ दी थी. हालांकि ये बात अलग है कि ईरान के नए शासन ने उनकी बातों पर कोई गौर नहीं किया ना ही उनकी ओर हाथ बढ़ाया.

  • उदारवादी तत्वों को प्रोत्साहित करके ईरान को एक केंद्र बनाए रखने की उम्मीद कर रहे थे.
  • आज तक अमेरिका हमेशा ईरान को अपना दुश्मन मानता आया है.
  • ईरान में तेज होता पश्चिमीकरण भी देशवासियों को चुभ रहा था.
  • सद्दाम के इराक ने पश्चिमी ईरान पर हमला किया, जिससे 20वीं सदी का सबसे लंबा युद्ध शुरू हो गया.
  • अमेरिका ने कोशिश की कि वह ईरान को अपने पक्ष में ला पाए लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ.
  • 9/11 के बाद ईरान ने पड़ोसी अफगानिस्तान में अपने तालिबान दुश्मनों के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग किया.
  • उम्मीदें जगीं थी कि ईरान अपने संबंध यूरोप और अमेरिका से बेहतर करना चाहता है.
  • हालत हो गई है कि ईरान में अमेरिका और यूरोप के खिलाफ बुरी तरह माहौल बन चुका है.

उदारवादी तत्वों को प्रोत्साहित करके ईरान को एक केंद्र बनाए रखने की उम्मीद कर रहे थे.

ईरान की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी, जो उनके लिए बहुत जरूरी थी. लिहाजा वो अब भी तेहरान में नई व्यवस्था के साथ संबंध स्थापित करने और नई सत्ता के भीतर उदारवादी तत्वों को प्रोत्साहित करके ईरान को एक केंद्र बनाए रखने की उम्मीद कर रहे थे. क्योंकि ये ऐसी जगह थी, जहां से वो सोवियत संघ की सीमा पार की गतिविधियों पर नजर रख सकते थे.चलिए इससे पहले के घटनाक्रम की ओर चलते हैं. जनवरी 1978 से तेहरान में उग्र प्रदर्शन शुरू हो गए, जिनकी तीव्रता बढ़ती गई. जिसकी परिणति 4 नवंबर 1979 को अमेरिकी दूतावास पर हमले और 61 राजनयिकों तथा दूतावास के कर्मचारियों को बंधक बनाने के रूप में हुई. इसके बाद बंधकों का नाटक शुरू हो गया, जो 444 दिनों तक चला.

आज तक अमेरिका हमेशा ईरान को अपना दुश्मन मानता आया है.

अमेरिका ने कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं किया था. दोनों देशों के बीच संबंधों में एक ऐसा संकट पैदा हो गया, जिससे वे अब तक नहीं उबर पाए हैं. तब से लेकर आज तक अमेरिका हमेशा ईरान को अपना दुश्मन मानता आया है. संदेह से देखता रहा है. ऐसा नहीं कि अमेरिका ने संबंधों को सामान्य करने की कोशिश नहीं कि लेकिन अब वो ये मानकर चल रहा है कि ईरान मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान के रहने तक मध्य पूर्व में गड़ चुका तनाव का कांटा नहीं निकलने वाला. वहीं ईरानी क्रांतिकारियों के लिए अमेरिका महान शैतान था और आज भी है. हालांकि वही अमेरिका ईरान के शाह को पुचकार रखा हुआ था. उन्हें 1953 में सीआईए और ब्रिटिश द्वारा किए गए तख्तापलट के जरिए गद्दी पर बिठाया गया था. क्योंकि तब निर्वाचित प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग ने ईरानी तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करने का दुस्साहस किया था, इससे अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के हितों पर आंच आ रही थी.

ईरान में तेज होता पश्चिमीकरण भी देशवासियों को चुभ रहा था.

बाद शाह का शासन भी जब निरंकुश होने लगा तो ईरान में इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. उन्होंने 1978 में शुरू हुए प्रदर्शनों के चलते वहां से भागकर निर्वासन में जाना पड़ा. तब ईरान में तेज होता पश्चिमीकरण भी देशवासियों को चुभ रहा था. इस्लामिक क्रांति से ठीक दो वर्ष पहले, राष्ट्रपति कार्टर ने नए वर्ष की पूर्वसंध्या पर शाह के साथ खड़े होकर कहा था: “शाह के महान नेतृत्व के कारण ईरान स्थिरता का एक द्वीप है.” दूतावास पर कब्ज़ा करना न केवल अमेरिकी-ईरानी संबंधों में, बल्कि ईरानी क्रांति के लिए भी एक महत्वपूर्ण क्षण था. नवंबर 1979 में इस्लामी क्रांति से जुड़े छात्रों के एक दल ने अमेरिकी दूतावास के अंदर 52 अमेरिकियों को बंधक बना लिया था. अयातुल्ला खुमैनी ने उन “छात्रों” का समर्थन किया, जिन्होंने दूतावास पर कब्जा कर लिया था. छात्रों की अगुवाई महमूद अहमदीनेजाद कर रहे थे, जो बाद में वर्ष 2005 में ईरान के राष्ट्रपति बने.

सद्दाम के इराक ने पश्चिमी ईरान पर हमला किया, जिससे 20वीं सदी का सबसे लंबा युद्ध शुरू हो गया.

अगले साल अमेरिकी चेतावनी के मुताबिक, सद्दाम के इराक ने पश्चिमी ईरान पर हमला किया, जिससे 20वीं सदी का सबसे लंबा युद्ध शुरू हो गया. यह 1988 में ही खत्म हुआ, जब अयातुल्ला खुमैनी ने “जहरीला प्याला पी लिया”, जैसा कि उन्होंने कहा. फिर शांति समझौते को स्वीकार कर लिया. जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, ईरान के इस्लामी चरमपंथियों ने अपनी क्रांति को अड़ोस – पड़ोस में फैलाना शुरू किया, जिसमें हम अब ईऱान की प्रतिरोध की धुरी के तौर पर जानते हैं. उदाहरण के लिए लेबनान में, 1982 के इजरायली आक्रमण के बाद उन्होंने अपने रणनीतिक सीरियाई साझेदारों के साथ मिलकर शिया आंदोलन हिजबुल्लाह की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जिन्होंने व्यापक रूप से 1983 में बेरूत में अमेरिकी दूतावास और अमेरिकी मरीन कोर बैरकों पर हुए घातक बम हमलों तथा 1980 के दशक में लेबनान में अमेरिकी बंधकों की गिरफ्तारी के पीछे माना गया. अमेरिकियों ने भी उन्हें दोषी ठहराया.

अमेरिका ने कोशिश की कि वह ईरान को अपने पक्ष में ला पाए लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ.

इराक पर आक्रमण की योजना के बारे में तेहरान को सूचित करके अमेरिका ने कोशिश की कि वह ईरान को अपने पक्ष में ला पाए लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो अमेरिका ने अपना पक्ष बदल लिया. ईरानी क्रांति को रोकने के रणनीतिक उद्देश्य से इराक को ईरानी सैनिकों की आवाजाही के बारे में खुफिया जानकारी उपलब्ध करानी शुरू कर दी. हालांकि आप दंग रह जाएंगे ये जानकर कि जब लेबनान में अमेरिकियों को बंधक बनाया गया तो अमेरिका ने उन्हें मुक्त कराने के लिए फिर ईऱान को लुभाने की कोशिश. उन्हें पीछे के दरवाजे से हथियार दिए. कहने को आधिकारिक तौर पर अमेरिका और ईरान के संबंध कटुतापूर्ण थे लेकिन अंदरखाने ये हो रहा था. स्थिति तब वाकई खराब हो गई 1988 में खाड़ी के ऊपर ईरानी नागरिक विमान को अमेरिका ने मार गिराया. इसमें 290 लोगों की जान चली गई.

9/11 के बाद ईरान ने पड़ोसी अफगानिस्तान में अपने तालिबान दुश्मनों के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग किया.

हालांकि इसके बाद 1997 में उदारवादी मोहम्मद खातमी के राष्ट्रपति के रूप में भारी बहुमत से चुने जाने के बाद फिर अमेरिका संबंधों को ठीक करने में जुटा लेकिन रूढीवादियों ने सारी कोशिश को विफल कर दिया. हालांकि आप हैरान होंगे कि 9/11 के बाद ईरान ने पड़ोसी अफगानिस्तान में अपने तालिबान दुश्मनों के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग किया. लेकिन इसके बाद भी अमेरिका का विश्वास उन पर नहीं जमा बल्कि जनवरी 2002 में प्रेसीडेंट बुश ने ईरान को “बुराई की धुरी” का हिस्सा घोषित कर दिया. उसी वर्ष बाद में, ईरान का गुप्त परमाणु कार्यक्रम अचानक सुर्खियों में आ गया. जिस पर रोक को लेकर ब्रिटिश, फ्रांसीसी और जर्मन विदेश मंत्रियों ने यूरेनियम संवर्धन पर रोक लगाने की मांग को लेकर बार-बार तेहरान का दौरा किया. हालांकि अमेरिकियों ने ऐसा करने से मना कर दिया.ईरान ने 2004 के अंत में संवर्धन रोकने पर सहमति जताई लेकिन एक बार फिर ईरानी कट्टरपंथियों ने इसे पलट दिया.

उम्मीदें जगीं थी कि ईरान अपने संबंध यूरोप और अमेरिका से बेहतर करना चाहता है.

महमूद अहमदीनेजाद 2005 में राष्ट्रपति चुने गए. अगले वर्ष संवर्धन फिर शुरू हो गया. हालांकि माना जाता है कि अहमदीनेजाद की नीतियों ने देश को घुटनों पर ला दिया. 2013 में श्री रूहानी के राष्ट्रपति चुने जाने पर जब उन्होंने ईरान के परमाणु संकट के समाधान और पश्चिम के साथ वार्ता की वकालत की तो ये उम्मीदें जगीं कि ईरान अपने संबंध यूरोप और अमेरिका से बेहतर करना चाहता है. 2012 में परमाणु समझौता हुआ. ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई भी इन बातचीत में शामिल रहे. लेकिन ये फिर गड़बड़ हो गया, क्योंकि अमेरिका को लगा कि ईरान लगातार लेबनान से लेकर फलीस्तीन तक विद्रोहियों को मदद कर रहा है.

हालत हो गई है कि ईरान में अमेरिका और यूरोप के खिलाफ बुरी तरह माहौल बन चुका है.

ईरान की अधिकांश ताकत कट्टरपंथी रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के हाथों में है, जिनका प्रभाव न केवल राजनीति और इराक, सीरिया, लेबनान और अन्य स्थानों पर ईरान की सैन्य भागीदारी तक फैला हुआ है, बल्कि आर्थिक प्रणाली के कई हिस्सों में भी गहराई तक फैला हुआ है. अब तो खैर ये हालत हो गई है कि ईरान में अमेरिका और यूरोप के खिलाफ बुरी तरह माहौल बन चुका है. वहीं ईरान की धुरी कहे जाने वाले हमास, हिजबुल्लाह, हौथी और सीरियाई विद्रोहियों को लेकर मध्य पूर्व बुरी तरह तनाव में घिरा है. युद्ध के बादल मंडराते नजर आ रहे हैं.

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